|
अठारहवाँ सूक्त
पूर्ण ऐश्वर्यके अधिपतियोंका सूक्त
[ आत्मा अपनी दूसरी भूमिकामें कोरी शारीरिक सत्ताको पार कर लेती है और प्राणिक सत्ताकी पूर्ण शक्तिसे भर जाती है क्योंकि उसे देवोंने जीवनके पचास-के-पचास वेगशाली अश्व दे दिये होते हैं । इस भूमिकाके बाद दिव्य शक्तियोंके आविर्भावको पूर्ण करनेके लिए 'भागवत संकल्पका आवाहन किया जाता है । अग्नि वहाँ आत्माकी उस दूर-दूरतक फैली हुई सत्ताकी ज्योति एवं ज्वालाके रूपमें विद्यमान है जिसने भौतिक सत्ताकी सीमाओंको तोड़ दिया होता है । वहाँ वह इस नये और समृद्ध अतिभौतिक जीवनके आनन्दोंसे पूर्ण है । अब इस तीसरी भूमिकाको अर्थात् स्वतन्त्र मनोमयी सत्ताको विचार और वाणीकी समृद्धतया विविध एवं ज्योतिर्मय क्रीड़ाके द्वारा पूर्ण बनाना है । इस क्रीड़ाके अन्तमें मनोमय प्रदेशोंके सर्वोच्च स्तरका अर्थात् मानसिक सत्तामें अतिमानसिक प्रकाशकी शक्तिका आविर्भाव होगा । वहाँ अन्तर्ज्ञानात्मक और अन्त:प्रेरित मनका आविर्भाव आरम्भ होता है । अग्निको सत्यज्ञान (ऋत) की उस विशालता, ज्योति और दिव्यताका सर्जन करना हे और इस प्रकार उससे, शक्तिके पहलेसे प्राप्त मुक्तवेगको तथा जीवन और उपभोगके विस्तृत क्षेत्रको, जो पूर्णतायुक्त और प्रभु-पूरित प्राणका अपना विशेष क्षेत्र है, विभूषित करना है । ] १ प्रातरग्नि: पुरुप्रियो विश: स्तवेतातिथि: । विश्वानि यो अमर्त्यो हव्या मर्तेषु रण्यति ।।
(प्रातः) उषःकाल1में (पुरुप्रिय:) अनेक आनन्दोंसे सम्पन्न, (विश: अतिथि: अग्नि:) प्राणियोंके अतिथि उस संकल्पाग्निकी (स्तवेत) स्तुतिकी जाय (य:) जो (मर्तेपु अमर्त्य:) मर्त्योमें अमर होता हुआ (विश्वानि हव्या) उनकी सब भेंटोमें (रण्यति) आनन्द लेता है । _____________ 1. मनमे उच्चतर ज्ञानकी दिव्य उषाका उदय होना ।n ९६
पूर्ण ऐश्वर्यके अधिपतियोंका सूक्त २ द्विताय मूक्तवाहसे स्वस्य दक्षस्य मंहन। इन्दुं स धत्त आनुषक् स्तोता चित् ते अमर्त्य ।।
(मृक्तवाहसे) पवित्र की हुई मेधाको वहन करनेवाली (द्विताय)1 दूसरी [ ऊर्ध्वस्तरकी ] आत्माके लिए (स:) वह अग्नि (स्वस्य दक्षस्य मंहना) अपने विवेकशील मनका पूर्ण वैभव है । तब (स:) वह आत्मा (आनुषक् इन्दुम्) आनन्दकी अविच्छिन्न मधु-मदिराको (धत्ते) अपने अन्दर धारण करती है और (ते चित् स्तोता) तेरी ही स्तुति करती है; (अमर्त्य) हे अमर ! ३+४ तं वो दीर्धायुशोचिषं गिरा हुवे मधोनाम् । अरिष्टो येषां रथो व्यश्वदावन्नीयते ।।
चित्रा वा येषु दीधितिरासन्नुक्था पान्ति ये । स्तीणॅ बर्हि: स्वर्णरे श्रवांसि दधिरे परि ।।
(तं दीर्घायुशोचिषम्) इस दूर-दूरतक विस्तृत सत्ताकी विशुद्ध-ज्वाला-रूप तुझ अग्निदेवको मैं (गिरा हुवे) अपनी वाणीसे पुकारता हूँ, (अश्व-दावन्) हे द्रुतगतिवाले अश्वोंके दाता ! (व: मघोनाम्) ऐश्वर्य-प्रचुरताके उन सब अधिपतियोंके लिये (येषां रथ:) जिनका रथ (अरिष्ट:) अक्षत होते हुए (वि ईयते) व्यापक2 रूपसे संचरण करता है,--तुझे पुकारता हूँ ।
पुकारता हूँ प्रचुर वैभवके उन अधिपतियोंके लिये (येषु वा चित्रा दीधिति:) जिनमें विचारका समृद्ध प्रकाश है और (ये) जो (आसन्) अपने ______________ 1. द्वित-मानवीय आरोहणके दूसरे ।स्तरका देव या ऋषि । यह स्तर प्राणशक्तिका स्तर है, पूर्णतया चरितार्थ शक्तिका, कामनाका स्तर है, उन प्राणिक शक्तियोंका मुक्त क्षेत्र है जो अब जड़ प्रकृतिके इस साँचेकी कठोर सीमाओंसे सीमित नहीं होती । हम नये प्रदेशोंके सम्बन्धमें और उनके भीतर सचेतन हों जाते हैं, वे प्राणके असीम क्षेत्र हैं जिन्हें अगली ऋचामें ''दूर-दूरतक विस्तृत सत्ता'' कहा गया है तथा जो हमारी सामान्य भौतिक चेतनाकी आड़में छिपे हैं । त्रित तीसरे स्तरका देव या ऋषि है जो भौतिक मनको अज्ञात, ज्योतिर्मय मानमिक राज्योंसे पूर्ण है । 2. प्राणके नये लोकोंमें दिव्य क्रिया अब चरितार्थ हो चुकी है और मृत्यु तथा अन्धकारकी शक्तियोंके ''अनिष्टों''से अक्षत विचरती है । ९७ मुंहमें (उवथा पान्ति) हमारे स्तुति-वचनोंकी रक्षा करते हैं । संपूर्ण आत्मा (स्व:-नरे) देदीप्यमान लोककी शक्ति1में (बर्हि: स्तीर्णम्) यज्ञके आसनकी तरह बिछी हुई है और (श्रवांसि परि दधिरे) इसकी समस्त अंत:प्रेरणाएँ उसके चारों ओर निहित हैं ।2 ५ थे मे पञ्चाशतं ददुरश्वानां सधस्तुति । द्युमदग्ने महि श्रवो बृहत् कृधि मधोनां नृवदमृत नृणाम् ।।
(ये) जिन्होंने (मे) मुझे (सधस्तुति) पूर्ण स्तुतिसे संपन्न (अश्वानां पञ्चाशतम्) अतिवेगशाली पचास अश्व3 (ददु:) दिये हैं, उनके लिए, (मघोनां नृणाम्) उन दिव्य आत्माओंके लिए जो प्रचुर वैभवके अधिपति हैं, (अमृत अग्ने) हे अमर ज्वाला ! (महि) महान् (बृहत्) विशाल और (नृवत्) दिव्यताओंसे पूर्ण (द्युमत् श्रव: कृधि) ज्योतिर्मय ज्ञानका सर्जन कर । ___________ 1. 'स्वर्णर'--इसके विषयमें प्राय: ऐसा उल्लेख किया जाता है मानो यह एक देश हो, यह अपने-आप स्वर् अर्थात् चरम अतिचेतन स्तर नहीं है, अपितु उसकी एक शक्ति है जिसे उस लोकका प्रकाश विशुद्ध मनोमय सत्तामें निर्मित करता है । यहाँ इसकी अंत:प्रेरणाएँ और प्रभाएँ अवतरण करती हैं और यज्ञके आसनके चारों ओर अपना स्थान ग्रहण करती हैं । इन्हें दूसरी जगह सौर देवता वरुणके गुप्तचर कहा गया है । 2. यह ऋचा द्वितके प्रदेशोसे त्रितके प्रदेशोंतक दिव्य गतिके अगले आरोहणका वर्णन करती है । 3. अश्व प्राणशक्तिका प्रतीक है जैसे गौ प्रकाशका । पचास, सौ एवं हजार--ये संख्याएँ पूर्णताकी प्रतीक हैं । ९८
|